Saturday, July 20, 2019

अनजान रिश्ते

अपने ही शहर में कुछ यूँ फिरता हूँ
अपनी ही गली में हर शख्स से यूँ मिलता हूँ
रोज़ दिखते हों जो, पर सामने आते नहीं
पास से गुज़र जाते हैं पर मुस्कुराते नहीं
उनकी गहरी सांस की आवाज़ तक आती है मुझ तक,
पर बतियाते नहीं,
किनारों से मिलकर पानी के धारे जैसे
छू तो लेते हैं पर अपनाते नहीं
लगते हैं अपने ही हैं, एक ही देहलीज़ से निकले हुए
उन रिश्तों से बंधे जो, पिछले जन्मों से हैं
जो मौजूद हैं सदियों से
पर इस हस्ती में, नज़र आते नहीं।


Tuesday, April 09, 2019

कुछ ख्वाब देख लिए जाएं

रेखते के उसूल नहीं मालूम, 
पर कुछ हर्फ़ तो लिख दिए जाएं
हम कौनसे रहेंगे यहां हर वक्त मौजूद,
कुछ दर्द दे दिए जाएं कुछ सह लिए जाएं

रिवायतों से बंधे, कुछ गुच्छे खोल दिए जाएं
सदियों से भरे अंधियारों के प्याले उड़ेल दिए जाएं
वो कह गए कि हर प्रश्न का उत्तर नहीं है
पर ज़हन में जो हैं प्रश्न, पटल पर रख दिए जाएं

और कुछ हो न हो, ख्वाबों की अमीरी तो है
शराब हो हम पियें नहीं, ये ज़मीरी ही तो है
खुलते सूरज में, अध खुली आँखों से ही सही,
कुछ ख्वाब देख लिए जाएं, कुछ ख्वाब बांट दिए जाएं।

जो रम्ज़  है दिल में, भुला दिए जाएं
जो तूफान है अंदर, लुटा दिए जाएं
किनारे छोड़ दिये जाएं
प्याले तोड़ दिए जाएं
जो दिन मय्यसर हैं महफ़िल के
फिलहाल, जी लिए जाएँ।

Friday, March 22, 2019

कितनी कहानियाँ

हर दिन यूँ  हज़ारों ज़िन्दगी जीता जा रहा हूँ मैं
बिना लिखी कितनी  कहानियाँ  कहता जा रहा हूँ मैं।

जो राह अंदर से बनी थी, वो तो सुनहरी और घनी थी
बच्चों की फुलवारी सी, वो सपनों से सजी थी
कुछ रस्ते महकते थे कुछ पगडंडियां चमकती थीं
उन पगडंडियों में मचल कर, बहकता जा रहा हूँ मैं।

हाँ ये सच है कि चलते चलते कुछ डर गया था
हर खिड़की पे रखे मुखोटों से सहम गया था
अनजाने शहर की छिपकली सी गलियों में
कभी फिसलता कभी संभालता जा रहा हूँ मैं।


रस्ते सबके वही थे, हज़ारों आये चले गए
अफ़साने हर कदम बने, सबके बने, सब नए
कुछ ने पोथे भर दिए, कुछ रो दिए, हँस दिए
मैं क्या करूँ ये समझ नहीं पा रहा हूँ मैं।

गिर तो गया था पर यहाँ वहां टकरा कर
कभी पत्थर की लगी, कभी मैं लगा पत्थर से
पसलियों पर लगी, पर तेरी डोर सी एक बची रही
उसी डोर को अब दनादन, खींचे जा रहा हूँ मैं।

हर दिन यूँ  हज़ारों ज़िन्दगी जीता जा रहा हूँ मैं
बिना लिखी कितनी कहानियाँ  कहता जा रहा हूँ मैं।
















Monday, January 21, 2019

वो जो मंगल पर रहता है

वो जो मंगल पर रहता है
एक पत्थर 
जो यूँही पड़ा रहता है 
सदियों सदियों तक 

जिसका वजूद तो है 
पर किसे ख़बर 
न कोई रहबर 
न तूफ़ान का डर 
न ईमान की चिंता 
न कोई इलज़ाम, न सफाई 
न उठना, न बैठना 
न जीना, न मरना
न कोई प्रश्न कि मैं कौन हूँ 
कहाँ से आया हूँ, क्या करूँ, क्या न करूँ 
बस एक ही गुण, पड़े रहना 
या यूँ कहो, 'रहना' | 


जो धरती से एक चमकता तारा है 
जो धड़कते दिलों के लिए एक अद्भुत नज़ारा है 
जो है, और साबित है 
ज़र्रों से बना, खुद एक ज़र्रा है 
जो कलाकार है और श्रोता भी 
कृषक है, और उपभोक्ता भी 
जहाँ सब संचित है, और सब वंचित भी 

वहाँ ... 
क्यों कोई आये गुमराह हो कर 
और मेहमान बने इस बियाबान का 
क्यों कोई पासबाँ बन कर पहरा दे 
इस अनोखे शमसान का

वहाँ ... 
एक पत्थर 
जो यूँही पड़ा रहता है 
सदियों सदियों तक !