Thursday, January 02, 2020

रिश्तों का बाग़


एक फूल यहाँ खिलता है,
एक ख्वाब यहाँ पलता है,
जीवन के वन में धीरे धीरे
एक बाग़ नया बनता है। 

कितने आसमानों से हर शाम
परिंदे यहाँ उतर आते हैं,
कुछ अपने से हो कर, कुछ सहमे से,
इन्हीं शाखों पर चहचहाते हैं।

कुछ बतियाते, कुछ कहकहे लगाते हैं,
कुछ यूँ ही वहां दूर खड़े मुस्कुराते हैं,
और आहिस्ता आहिस्ता उनमें से कुछ
जीवन में उतरते जाते हैं।

रिश्ते कहाँ सिर्फ रिश्ते रहते हैं
हिमालय से रुके, तो कभी गंगा से बहते हैं।
रोज़ जिसे सजाया नहीं जाता,
वो एक जुड़ा हुआ इतिहास कहते हैं।

यूँ तो राहें कई निकलतीं हैं,
कुछ दूर तलक जाती,
कुछ काफिलों से संवरती,
तो कुछ अंधड़ों से निपटती हैं । 
कुछ नुक्कड़ पर सिमटती हैं
या गलियारों में मिल जाती हैं ।

बागों में फूलों की खुशबुएँ,
जब इन गलियारों से होकर ,
लम्बी राहों पर जाती हैं,
भेद नहीं करती हैं वो,
सब राहों को चुनती,
चूमती, झूमती गाती, और
जीवन के उल्लास से सराबोर
बिना शर्त, बिना शर्म,
वो सबको मिलाती, सुनती, बताती हैं।

इन्हीं राहों पे चलकर
इन्हीं गलियारों से मिलकर,
अपनों से मिलो और 
कुछ समय बिताओ,
कुछ पल के लिए रोको ये काफिला,
कुछ आनंद के गीत गाओ,

कुछ कहो अनजाना सा,
कुछ कही सुनी दोहराओ,
जितने पल झोली में हैं,
उतने दीप जलाओ |

महको, चमको और सबको जीवन का अमृत पान कराओ !