Friday, March 22, 2019

कितनी कहानियाँ

हर दिन यूँ  हज़ारों ज़िन्दगी जीता जा रहा हूँ मैं
बिना लिखी कितनी  कहानियाँ  कहता जा रहा हूँ मैं।

जो राह अंदर से बनी थी, वो तो सुनहरी और घनी थी
बच्चों की फुलवारी सी, वो सपनों से सजी थी
कुछ रस्ते महकते थे कुछ पगडंडियां चमकती थीं
उन पगडंडियों में मचल कर, बहकता जा रहा हूँ मैं।

हाँ ये सच है कि चलते चलते कुछ डर गया था
हर खिड़की पे रखे मुखोटों से सहम गया था
अनजाने शहर की छिपकली सी गलियों में
कभी फिसलता कभी संभालता जा रहा हूँ मैं।


रस्ते सबके वही थे, हज़ारों आये चले गए
अफ़साने हर कदम बने, सबके बने, सब नए
कुछ ने पोथे भर दिए, कुछ रो दिए, हँस दिए
मैं क्या करूँ ये समझ नहीं पा रहा हूँ मैं।

गिर तो गया था पर यहाँ वहां टकरा कर
कभी पत्थर की लगी, कभी मैं लगा पत्थर से
पसलियों पर लगी, पर तेरी डोर सी एक बची रही
उसी डोर को अब दनादन, खींचे जा रहा हूँ मैं।

हर दिन यूँ  हज़ारों ज़िन्दगी जीता जा रहा हूँ मैं
बिना लिखी कितनी कहानियाँ  कहता जा रहा हूँ मैं।