Tuesday, August 22, 2017

जब ज़िन्दगी खुद सीने से लगा लेती है

जब ज़िन्दगी खुद सीने से लगा लेती है
थकते मुसाफिर को, पंख लगा देती है
जिसको हर कदम पर मिलती हो ज़िल्लतें
उसको मनचाही राहों का मेहमान बना देती है।

कोशिशें लाख होती हैं, तमन्नाएं लाख पलती हैं
पर मुकम्मल होना दूर, हर एक सांस जलती हैं
जब अपने मुँह छुपाते हैं, पराये दिशा भटकाते हैं
जब सुबह सूरज के दर्शन से, सिर्फ आहें निकलतीं हैं|

जब दिन भर के परिश्रम का,
सारांश सिर्फ इतना होता हैं,
शरीर थकता हैं, पल पल गिरता हैं
मन बस प्र्श्न उठाता है, रातों से डराता है|

जब कई साल यूँही बीत जाते हैं
निराशाओं के अँधेरे, लगभग जीत जाते हैं
तब कहीं तो अंतरतम, के पहचाने से एक कोने से,
आशा की एक चिंगारी सुलगती है,
हवा कुछ भी नहीं होती, पर न जाने क्यों भभकती है |

इंसान नहीं बदलता है, न सामान बदलते हैं,
बदलतीं सिर्फ हवाएं हैं,  जनम भर की दुआएं हैं
तब एक कदम इंसान का, एक धरती चलाता हैं
नए पंखों की ताकत से, कई और को उठाता है|

ये एक अजब किमया है,
एक  ज़रूरी जज़बा है
जो हर इंसान को हासिल है,
और हर सांस में शामिल है!!