Tuesday, July 10, 2012

Phir nayi subah

सुबह हुई तो धूप मुझे ढूंढेगी
ब्रह्माण्ड के अनंत में एक सुगबुगाहट  ये भी सही।
अखबार के पन्ने में तो  रोज़मर्रा की बातें रहीं
ज़िन्दगी सांस लेती रही
मैं पन्ने पलटता गया ।

उमस हुई तो हलचल मची
ज़मीं से असमान तक, कुछ उथला उथला सा था
बातें वही रहीं, आवाज़ बदलती गयी
एक दिन बादल भी आये,
अन्दर बाहर सब गहराने लगा
धूप पीछे हटने लगी
मन सिमटने लगा
संभावनाएं बनने लगी
आशंकाए बढ़ने लगीं
कहूँ तो कहूँ कैसे,
बढूँ तो बचूँ कैसे
बस एक बूँद पड़ी मस्तक पर
रंग बदलने लगे
आकार वही रहे, मायने बदलने लगे
उस  बूँद में जो नया ब्रह्माण्ड समाया
इस ब्रहमांड को बदलने लगा ।

बादल तो नीचे थे
मेरे लिए तकिया भर थे
ऊपर से सृष्टि झांकती थी
लाखों योनियों में करोड़ों मनों में
अरबों विचारों में, खरबों संदेशों  में

जहाँ विस्तार था, वहीँ पिघलता सूरज भी था,
जहाँ सिर्फ नाद था, वहीँ फटते तारा मंडल भी थे
जहाँ कोई न था, वहां अगिनत बदलते आयाम थे
एक लम्बी खोज का कठिन दौर था
जो बहा गया वो कोई और था

मैं तो बस यहीं कहीं था
नए अखबार की गंध से सरोबार
पन्ने पलटता हुआ
हर रोज़, हर वक्त
चाय के प्याले पर
सृजन बदलता हुआ।
सुबह हुई तो धूप मुझे ढूंढेगी
ब्रह्माण्ड के अनंत में एक सुगबुगाहट ये भी सही।