Saturday, July 20, 2019

अनजान रिश्ते

अपने ही शहर में कुछ यूँ फिरता हूँ
अपनी ही गली में हर शख्स से यूँ मिलता हूँ
रोज़ दिखते हों जो, पर सामने आते नहीं
पास से गुज़र जाते हैं पर मुस्कुराते नहीं
उनकी गहरी सांस की आवाज़ तक आती है मुझ तक,
पर बतियाते नहीं,
किनारों से मिलकर पानी के धारे जैसे
छू तो लेते हैं पर अपनाते नहीं
लगते हैं अपने ही हैं, एक ही देहलीज़ से निकले हुए
उन रिश्तों से बंधे जो, पिछले जन्मों से हैं
जो मौजूद हैं सदियों से
पर इस हस्ती में, नज़र आते नहीं।